बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 47)
रोटी, दाल, भात, बैंगन की भाजी, आम का अचार, बकरी का गर्म दूध और शकर परोसकर फटा डालकर पानी रखकर सास जी से कहा, "अम्मा, चलो, भोजन कर लो।"
मन्नी की सास शरमाई हुई उठीं; हाथ-पैर धोकर चौक में जाकर प्रेम से भोजन करने लगीं।
खाते-खाते पूछा, "भैंस तो तुम्हारे है नहीं, लेकिन घी भैंस का पड़ा जान पड़ता है।"
बिल्लेसुर ने कहा, "गृहस्थी में भैंस का घी रखना ही पड़ता है, कोई आया-गया, अपने काम में बकरी का घी ही लाता हूँ।"
मन्नी की सास ने छककर भोजन किया, हाथ-मुँह धोकर खटोले पर बैठीं। बिल्लेसुर ने इलायची, मसाले से निकालकर दी।
फिर स्वयं भोजन करने गये।
बहुत दिनों बाद तृप्ति से भोजन करके पड़ोस से एक चारपाई माँग लाये; डालकर खटोले का टाट उठाकर अपनी चारपाई पर डाला और मन्नी की सास के लिये बंगाल से लाई रंगीन दरी बिछा दी, वहीं का गुरुआइन की पुरानी धोतियों का लपेटकर सीया तकिया लगा दिया।
सास जी लेटीं। आँखें मूदकर बिल्लेसुर की बकरियों की बात सोचने लगीं। जब बिल्लेसुर काछी के यहाँ गये थे,
उन्होंने एक-एक बकरी को अच्छी तरह देखा था। गिनकर आश्चर्य प्रकट किया था।
इतनी बकरियों और बच्चों से तीन भैंस पालने के इतना मुनाफ़ा हो सकता है, कुछ ज्यादा ही होगा।
बिल्लेसुर धैर्य के प्रतीक थे। मन में उठने पर भी उन्होंने विवाह की बातचीत के लिये कोई इशारा भी नहीं किया।
सोचा, "आज थकी हैं, आराम कर लें, कल अपने आप बातचीत छेड़ेंगी, नहीं तो यहाँ सिर्फ मुँह दिखाने थोड़े ही आई हैं?"
बिल्लेसुर पड़े थे।
एकाएक सुना, खटाले से सिसकियाँ आ रही हैं ।
सांस रोककर पड़े सुनते रहे। सिसकियाँ धीरे-धीरे गुँजने लगीं, फिर रोने की साफ़ आवाज़ उठने लगी।
बिल्लेसुर के देवता कूच कर गये कि खा-पीकर यह काम करके रोना कैसा? जी धक से हुआ कि विवाह नहीं लगा, इसकी यह अग्रसूचना है।
घबराकर पूछा, "क्यों अम्मा, रोती क्यों हो?” मन्नी की सास ने रोते हुए कहा, "न जाने किस देश में मेरी बिटिया को ले गये! जब से गये, एक चिट्ठी भी न दी।"